खगड़िया में दीपावली का त्योहार नजदीक है, लेकिन इस बार पारंपरिक मिट्टी के दीये बनाने वाले कुम्हारों के घरों में रौनक कम है। प्लास्टिक और सजावटी मोमबत्तियों की बढ़ती मांग ने कुम्हारों की आजीविका पर असर डाला है। पहले जहां दीयों की बिक्री से उनका महीनों का खर्च निकल जाता था, वहीं अब बिक्री घटने से दीपावली भी फीकी हो गई है।
“अब मिट्टी भी महंगी और ग्राहक भी कम”
मड़ैया बाजार के पास रहने वाली सीता देवी और उनके बेटे सोनू पंडित पिछले 25 सालों से इस पारंपरिक कला से जुड़े हैं। सीता देवी बताती हैं कि पहले लोग सीधे घर आकर दीये और बर्तन खरीदते थे। अब न तो वैसी मांग रही और न मिट्टी सुलभ है। वह कहती हैं, “एक टेलर मिट्टी के लिए दो हजार रुपए देने पड़ते हैं, बालू भी अलग से लानी पड़ती है। मेहनत ज्यादा, फायदा बहुत कम।”
आजीविका बचाने के लिए करनी पड़ रही मजदूरी
सीता देवी ने बताया कि अब केवल कुम्हारगिरी से घर नहीं चलता। “दीये बनाना परंपरा है, लेकिन पेट तो मजदूरी से ही भरता है,” वह कहती हैं। त्योहार के समय कुछ उम्मीद रहती है, लेकिन सालभर इस पेशे से गुज़ारा मुश्किल हो गया है।
इलेक्ट्रिक चाक से बढ़ी उत्पादन क्षमता
सोनू पंडित बताते हैं कि पहले पारंपरिक चाक पर 200-300 दीये बनाना भी कठिन था, लेकिन अब इलेक्ट्रिक चाक से 700-800 दीये रोज़ बनाना संभव है। हालांकि, इससे मुनाफा नहीं बढ़ा।“अब बहुत लोग इस काम में उतर आए हैं। पहले जितने ग्राहक थे, अब उनसे कहीं ज्यादा कुम्हार हैं,” सोनू बताते हैं।
पारंपरिक कला को बचाने की जरूरत
खगड़िया के कई कुम्हार मानते हैं कि अगर सरकार की ओर से मिट्टी, रंग और बाज़ार उपलब्ध कराने की व्यवस्था हो, तो यह परंपरा फिर से जीवित हो सकती है। फिलहाल आधुनिक सजावटी सामानों की भीड़ में मिट्टी के दीयों की लौ मंद पड़ती दिख रही है।

